Tuesday, 3 March 2015

ज़िन्दगी..



कभी हसीन ख़्वाब की ओर जब ये मन बढ़ता है,
तभी न जाने क्यूँ ये नींद टूट जाती है।
कहते हैं वक्त बदलते देर नहीं लगती,
न जाने क्यूँ मेरा वक्त बदलने वाली हर घड़ी टूट जाती है।
लाख इबादत कर लूँ मस्जिदों मंदिरों में,
न जाने क्यूँ हर नाज़ुक मोड़ पर ये किस्मत रूठ जाती है।
हर सू बेहतरी की ओर बढ़ने की उम्मीद लेकर चलता हूँ,
न जाने क्यूँ शाम होते होते हर वो उम्मीद टूट जाती है।
अपनी ही ख़्वाहिशो़ का क़ैदी बन जाता हूँ अक्सर,
ये नासमझ दुनिया इसको आजा़दी बताती है।
दर्द अब जो मिलता है दिल भी उससे बेखबर सा रहता है,
ये साँसें भी अब मुझे सिसकियों का आदी बताती हैं।
तुझे रोज़ मनाने के लिए कितने जतन करता हूँ ऐ ज़िन्दगी,
न जाने मेरी कौन सी ख़ता से तू रोज़ रूठ जाती है।

-कविराज

सू - सुबह

Image courtesy : www.wallpapermay.com 

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