Monday 2 March 2015

वो पुराना मकान..



मैं आज भी जब किसी सिलसिले से उस  इलाके में जाता हूँ,
तो अपना वो पुराना मकाँ वहाँ पाता हूँ...
एक ढलती हुई सड़क, एक-दो पेड़ों के बीच से निकलती हुई,
उस मकां  तक पहुचती थी...
जहां नीचे ही एक आदमी लोहे  की इस्त्री में,
अक्सर कोयला फूँका करता था..
वो आदमी खम्बे के सहारे दूकान  लगाये आज भी वहीँ खड़ा है...
कुछ -एक  सीढियाँ चढ़कर एक सुनहरे रंग का दरवाज़ा खुलता था,
घर में घुसकर दो रास्ते हुआ करते थे...
एक अन्दर जाता था, दूसरा मेहमानखाने की ओर बढ़ता था...
मेहमानखाने की दीवारों पर भगवान् तस्वीरों में बसते थे,
उसी कमरे में वो इनामी ट्रोफियाँ रखी जाती थी,
जो मैं कभी कभी जीत कर लाया करता था...
आज मानो उसी कमरे को गहरा सन्नाटा इनाम में मिल गया है...
उसी मेहमानखाने से एक छोटा दरवाज़ा रसोई में खुलता था..
जो माँ के हाथ के खाने की महक से  रोशन रहता था..
कई दफ़े तो वो महक पूरे घर में फैली हुई  मिलती थी..
आज देखा तो वहाँ जाले बन गए हैं , महक की जगह धूल साँसों  में मालूम पड़ती है ,
रसोई से बाहर निकलकर एक बरामदा था...
जहां बचपन  में मैं पिताजी के साथ क्रिकेट खेला करता था..
अक्सर गेंद से टूटे कांच के टुकड़ों को समेटा करता था...
आज वो जगह भी एकदम साफ़ मिली, बस चंद यादें ही समेटने को बाकी थी ,
थोड़ा अन्दर जाने पर माँ और पापा का कमरा था,
वो कमरा उन तोहफों से सजा रहता था,
जो सालगिरह पर मैं अपनी बहन संग मिलकर दिया करता था..
अजीब इत्तेफाक है की जो कमरा  इतना चहकता था..
आज वही सूनेपन का सबसे बड़ा शिकार मालूम पड़ता है...
उस मकान के सामने ही वो बूढी औरत भी रहा करती थी...
जिसे मैं बचपन से देखता रहा था..
आज जब वहाँ जाता हूँ तो वो भी वहाँ नहीं मिली..
शायद यह सूनापन ये सन्नाटा उसे भी ले डूबा होगा...
मैं आज भी जब किसी सिलसिले से उस  इलाके में जाता हूँ ,
तो अपना वो पुराना मकाँ वहाँ पाता हूँ..
- कविराज 

(Image courtesy : www.free-desktop-backgrounds.net)

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