Wednesday, 11 March 2015

गुज़ारिशें ख़ुदा से...

कहीं जो मुझे मेरी साँसों में जान दिला  दे…
ऐ खुदा अब मुझे भी मेरा आसमान दिला  दे…
जो छू ना सका हो आज तक कोई भी इंसान ...
ऐ ख़ुदा अब मुझे वो मक़ाम दिला दे ...
मोहब्बत बहुत हसीन होती है सुना है मैंने ...
ग़र इतनी हसीन है तो दिल में बसर करने वाला कोई नाम दिला दे ...
ज़िन्दगी के मोड़ बड़े तंग हैं.. दिन  ये बड़े मुश्किल से लगते हैं ...
ऐ ख़ुदा अब तू मुझे सुकून की कोई शाम दिला  दे ...
मुझे तेरे इंसाफ पे बेशुमार अक़ीदत है ...
तू मुझपे अपनी इनायत सरेआम गिरा दे ...
कुछ ख़फा सी रहने लगी हैं ये हवाएं भी मुझसे ...
मेरी मुश्किलें कम कर तू मुझे आराम दिला  दे ...
हर सुबह तेरे ही दर पे सर झुकाके गुज़री  है ...
बहुत हुआ इंतज़ार मौला , अब तो मुझे अंजाम दिला दे ...
अब तो मुझे अंजाम दिला दे ...

- कविराज 

मक़ाम - ऊंचाई 
अक़ीदत - भरोसा 
इनायत - कृपा  

Thursday, 5 March 2015

मेरे जाने के बाद..


मेरे ख्यालों को अपने ख्यालों में पनाह देना,
मैं जब न रहूँ तो मेरी कहानी सुना देना।
मेरा बचपन आज भी कहीं माँ की आँखों में खिलखिलाता होगा,
कि जो उसकी आदत थी मुझे भीगे बादाम हर सुबह देना।
मेरी कहानी की गहराई में जाओगे तो रो पड़ोगे,
बिना पढ़े हर ख़त मेरे महबूब का तुम जला देना।
ताल्लुक जो मेरा रहा है कुछ रहमती इंसानों से,
बस किसी तरह उन तक मेरे जाने की ख़बर पहुंचा देना।
जो तुम्हें भरे बाज़ार में एक सफ़ेद चादर न मिल पाए,
तो माँ की कोई पुरानी ओढ़नी ओढ़ा देना।
फक़त एक बार मेरे महबूब को मेरी रुह के करीब ले आना,
फिर चाहे मुझे मिट्टी में दफना देना या गंगा में बहा देना।

- कविराज 

Tuesday, 3 March 2015

एक साया..



एक साया सा मेरे आसपास घूमता है,
शायद तलाश में किसी की झूमता है..
पल भर को वो रुकता है कहीं,
किसी की झलक जैसे मिली हो यहीं..
एक अधूरा सपना पूरा करने को,
शायद वो उस शख्स को ढूंढता है..
यूँ बाहें फैलाये.. आँखों को मूंदे,
उसे किसी हमसफ़र का इंतज़ार है..
उसकी आँखों में देखता हूँ.. तो बस प्यार ही प्यार है।
अचानक.. वो साया कहीं दूर चला गया,
शायद प्यार से उसका विश्वास डगमगा गया,
 सोचता हूँ कहीं ये खुद का कोई संदेसा तो नहीं था..
और वो साया.. वो साया कहीं मेरा तो नहीं था..
-कविराज
(Image courtesy : wellwai.com)


ज़िन्दगी..



कभी हसीन ख़्वाब की ओर जब ये मन बढ़ता है,
तभी न जाने क्यूँ ये नींद टूट जाती है।
कहते हैं वक्त बदलते देर नहीं लगती,
न जाने क्यूँ मेरा वक्त बदलने वाली हर घड़ी टूट जाती है।
लाख इबादत कर लूँ मस्जिदों मंदिरों में,
न जाने क्यूँ हर नाज़ुक मोड़ पर ये किस्मत रूठ जाती है।
हर सू बेहतरी की ओर बढ़ने की उम्मीद लेकर चलता हूँ,
न जाने क्यूँ शाम होते होते हर वो उम्मीद टूट जाती है।
अपनी ही ख़्वाहिशो़ का क़ैदी बन जाता हूँ अक्सर,
ये नासमझ दुनिया इसको आजा़दी बताती है।
दर्द अब जो मिलता है दिल भी उससे बेखबर सा रहता है,
ये साँसें भी अब मुझे सिसकियों का आदी बताती हैं।
तुझे रोज़ मनाने के लिए कितने जतन करता हूँ ऐ ज़िन्दगी,
न जाने मेरी कौन सी ख़ता से तू रोज़ रूठ जाती है।

-कविराज

सू - सुबह

Image courtesy : www.wallpapermay.com 

Monday, 2 March 2015

अफ़साना मोहब्बत का..



दिल में जगा मोहब्बत का एक अफसाना सा,
वो चेहरा एक है जो कुछ अंजाना सा,
ख्यालों का ताना बाना जब ये मन रात को बुनता है,
उसमें एक शक्ल का दीवानापन अक्सर चढ़ता  है,
वो चेहरा जो ढलते दिन की पीली सी रौशनी में,
कुछ अलग ही चमक लिए जन्नत सा नूर लगता है,
सपने भी  मेरे ऐसे हैं बिन सजाये ही सज जाते हैं,
दिल के सारे तार खुद--खुद सोज़ में बज जाते हैं,
उस शक्ल पे सारी जिंदगी बिताने को जी चाहता है,
उसके सपनों में यूँ  ही शुमार होने को जी चाहता है ,
वो मोहब्बत की लगाम थामे और जिंदगी को चलाये,
मैं कुछ  कहूँ  और वो दिल की आहटें समझ जाये ,
कोई फ़रिश्ता अब ख़ुदा का ऐसा भी आये ,
जो उसको भी मेरा दीवाना कर जाए....
जो उसको भी मेरा दीवाना कर जाए....
- कविराज

(Image courtesy : www.hdwalls.info)

वो पुराना मकान..



मैं आज भी जब किसी सिलसिले से उस  इलाके में जाता हूँ,
तो अपना वो पुराना मकाँ वहाँ पाता हूँ...
एक ढलती हुई सड़क, एक-दो पेड़ों के बीच से निकलती हुई,
उस मकां  तक पहुचती थी...
जहां नीचे ही एक आदमी लोहे  की इस्त्री में,
अक्सर कोयला फूँका करता था..
वो आदमी खम्बे के सहारे दूकान  लगाये आज भी वहीँ खड़ा है...
कुछ -एक  सीढियाँ चढ़कर एक सुनहरे रंग का दरवाज़ा खुलता था,
घर में घुसकर दो रास्ते हुआ करते थे...
एक अन्दर जाता था, दूसरा मेहमानखाने की ओर बढ़ता था...
मेहमानखाने की दीवारों पर भगवान् तस्वीरों में बसते थे,
उसी कमरे में वो इनामी ट्रोफियाँ रखी जाती थी,
जो मैं कभी कभी जीत कर लाया करता था...
आज मानो उसी कमरे को गहरा सन्नाटा इनाम में मिल गया है...
उसी मेहमानखाने से एक छोटा दरवाज़ा रसोई में खुलता था..
जो माँ के हाथ के खाने की महक से  रोशन रहता था..
कई दफ़े तो वो महक पूरे घर में फैली हुई  मिलती थी..
आज देखा तो वहाँ जाले बन गए हैं , महक की जगह धूल साँसों  में मालूम पड़ती है ,
रसोई से बाहर निकलकर एक बरामदा था...
जहां बचपन  में मैं पिताजी के साथ क्रिकेट खेला करता था..
अक्सर गेंद से टूटे कांच के टुकड़ों को समेटा करता था...
आज वो जगह भी एकदम साफ़ मिली, बस चंद यादें ही समेटने को बाकी थी ,
थोड़ा अन्दर जाने पर माँ और पापा का कमरा था,
वो कमरा उन तोहफों से सजा रहता था,
जो सालगिरह पर मैं अपनी बहन संग मिलकर दिया करता था..
अजीब इत्तेफाक है की जो कमरा  इतना चहकता था..
आज वही सूनेपन का सबसे बड़ा शिकार मालूम पड़ता है...
उस मकान के सामने ही वो बूढी औरत भी रहा करती थी...
जिसे मैं बचपन से देखता रहा था..
आज जब वहाँ जाता हूँ तो वो भी वहाँ नहीं मिली..
शायद यह सूनापन ये सन्नाटा उसे भी ले डूबा होगा...
मैं आज भी जब किसी सिलसिले से उस  इलाके में जाता हूँ ,
तो अपना वो पुराना मकाँ वहाँ पाता हूँ..
- कविराज 

(Image courtesy : www.free-desktop-backgrounds.net)

जुबां दिल की..


बेरंग ज़िन्दगी को इक रंगीन समां बनाती है,
मोहब्बत आप को बेहतर इन्सान बनाती है।
यूँ तो टुकड़ों टुकड़ों में कटती रहती है ज़िन्दगी,
मोहब्बत हसीन लम्हों को जोड़ कर दास्ताँ बनाती है।
- कविराज